Download Pdf|’प्रगीत’ और समाज 12th Hindi Chapter 9|लेखक के बारे में|पाठ का सारांश|VVI Subjectives Questions|VVI Objectives Questions

     ‘प्रगीत’ और समाज

‘प्रगीत’ और समाज लेखक के बारे में

नामवर सिंह बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में चर्चित होने लगे और आजीवन हिन्दी आलोचना के शीर्षस्थ व्यक्तित्व बने रहे। वे बहुअधीत विद्वान थे। साहित्य को अन्तर-अनुशासनात्मक सत्ता के रूप में चिह्नित करते हुए नामवर जी ने हिन्दी आलोचना में वैचारिक और सृजनात्मक गांभीर्य जोड़ा है। इस क्रम में उन्होंने साहित्यिक विधा-विशेष के आविर्भाव एवं पतन के विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों की वस्तुनिष्ठ आलोचना की है। उनका मानना है कि कोई भी कला-रूप अपनी ऐतिहासिकता तथा सामाजिकता के विकास के आधार पर ही बनता-बिगड़ता चलता है।

 

‘प्रगीत’ और समाज पाठ का सारांश

प्रस्तुत निबंध में नामवर सिंह प्रगीत के उदय के ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों की पड़ताल करते हैं। उनका मानना है कि प्रगीत हिन्दी की अपनी लोकपरक जातीय काव्य संवेदना का आधुनिक विकास है । मुक्तकों में भी जीवन का यथार्थ अपनी पूरी इयत्ता के साथ उपस्थित होता है। हिन्दी कविता का जातीय इतिहास मूलतः प्रगीतों का इतिहास है । जातीय इतिहास से यहाँ तात्पर्य है-हिन्दी भूमि के जनमानस से संबद्ध कविता रूपों के विकास का इतिहास । विद्यापति, जिन्हें इस आधार पर हिन्दी का पहला कवि माना जा सकता है, ने गीतों से ही अपनी रचनायात्रा आरंभ की थी। उनकी परंपरा का विकास संतों और भक्तों की प्रगीतात्मक वाणियों में लक्षित किया जा सकता है । तुलसी की विनय पत्रिका के अलावा कबीर, सूर, मीरा, नानक, रैदास आदि ने लोकभाषा की परिष्कृत गीतात्मकता से प्राण ग्रहण करते हुए अपने प्रगीतात्मक काव्य रचे। इन प्रगीतों की चरम वैयक्तिकता ही परम सामाजिकता के रूप में प्रतिफलित हुई और भक्ति काव्य एक आंदोलन के रूप में जनमानस के लिए प्रेरणास्रोत बना । वे इसका विकास आधुनिक काल तक देखते हुए बताते हैं हिंदी की आधुनिक कविता एक नए प्रगीतात्मक सौंदर्यशास्त्र को विकसित कर रही है। यह न तो व्यक्ति की आंतरिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति को प्रकट करने में संकोच कर रही है और न ही बाहर के यथार्थ का रचनात्मक सामना करने में हिचक रही है। अंदर न तो किसी असंदिग्ध विश्वदृष्टि का मजबूत खूटा गाड़ने की जिद है और न बाहर को एक विराट पहाड़ के रूप में आँकने की हवस । बाहर छोटी से छोटी घटना, स्थिति, वस्तु आदि पर नजर है और कोशिश है उसे अर्थ देने की। इसी तरह बाहर की प्रतिक्रियास्वरूप अंदर उठने वाली छोटी से छोटी लहर को भी पकड़कर उसे शब्दों में बाँध लेने का उत्साह है। अर्थात् आधुनिक कविता न तो रोमांटिकता की हद तक व्यक्तिवादी, आत्मपरक और कलावादी है और न ही सामाजिक यथार्थ के प्रति यांत्रिक रूप से संवेदित। यह कविता किसी जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि की जगह व्यक्ति और समाज के द्वन्द्वात्मक संबंधों को उनके संश्लेष में देख रही है। यहाँ किसी प्रकार का पूर्वग्रह या दुराग्रह नहीं है बल्कि एक वास्तविक लोकतांत्रिक कलाबोध आधुनिक कविता की विशेषता के रूप में देखा जा सकता है। प्रगीतों के इस आधुनिक उन्नयनके क्रम में शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन तथा केदारनाथ सिंह का उल्लेख करता हुआ यह निबंध कविता के समाजशास्त्रीय विश्लेषण के एक प्रतिदर्श के रूप में भी देखा जा सकता है।

 

 ‘प्रगीत’ और समाज VVI Subjective Question

Q.1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काव्य-आदर्श क्या थे , पाठ के आधार पर स्पष्ट करें |

उत्तर – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काव्य-आदर्श प्रबंधात्मक प्रकृति के काव्य थे | उनका मानना था की प्रबंध काव्य की विस्तृत और गहन संरचना में ही मानव जीवन की समग्र अभिव्यति संभव है | वे प्रगीत मुक्तकों को जीवन की विविधताओं को धारण ना कर पाने की उनकी क्षमता की वजह से आदर्श काव्य के मापदण्ड के रूप मे अस्वीकार करते हैँ |

 

Q.2. ‘कला कला के लिए’ सिद्धांत क्या है ? या, ‘कला कला के लिए’ इस उक्ति को स्पष्ट कीजिए |

उत्तर – ‘कला कला के लिए’ सिद्धांत मूलतः चित्रकला से संबंधित सिद्धांत है जो सबसे पहले फ़्रांस मे 1866 में ‘ल आर्त पोर ल आर्त’ के रूप में विकसित हुआ | इसस सिद्धांत के अनुसार कला किसी सामाजिक-राजनीतिक या आर्थिक उद्देश्यों की प्रस्तोता नहीं होती | वह कलाकार की शुद्धतम अनुभूतियों की अभिव्यक्ति मात्र है | कला की अनुभूति और अभिव्यक्ति अपने पवित्रतम रूप मे तभी प्रकट और पूर्ण हो जाती है जब वह कलाकार के मन में बिंबित होती है | यह सिद्धांत साहित्य के क्षेत्र मे आगे चलकर व्यक्तिवाद, रहस्यवाद, स्वच्छंदतावाद आदि रूपों मे प्रकट हुआ |

 

Q.3. प्रगीत को आप किस रूप मे परिभाषित करेंगे ? इसके बारे मे क्या धारणा प्रचलित रही है ?

उत्तर – वैयक्तिक और आतमपरक काव्य रूप को प्रगीत की संज्ञा दी गई है | इसका आकार प्रायः छोटा होता है | ऐसा माना जाता है की कवि की आंतरिक अनुभूतियाँ ही प्रगीत को जन्म देती है | इनमे इतिवृत्तात्मकता का आभाव रहता है | इनके बारे में धारणा प्रचलित रही है की जीवन की अनेकरंगी परिस्थितियों की और ले जाने वाले प्रसंगों या आख्यानों को प्रगीत धारण नहीं करते | ये विशुद्ध काव्यात्मक होते हैँ , जो अंततः कलावादी मूल्यों, वैयक्तिक अनुभूतियों को ही प्रश्रय देते हैँ तथा किसी प्रकार की सामाजिकता या सामाजिक यथार्थ का इनमे अभाव होता है |

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