तुमुल कोलाहल कलह में कवि के बारे में
जयशंकर प्रसाद छायावादी काव्य परंपरा के प्रवर्तकों में अग्रगण्य हैं।नाटक, निबंध, कहानी, उपन्यास के अलावा उन्होंने कामायनी नामक खंडकाव्य लिखकर आधुनिक हिन्दी काव्य की कालजयी रचनाधर्मिता प्रमाणित की। उनका प्रिय उपजीव्य इतिहास और मिथक रहा है। लेकिन इतिहास और मिथक को वे एक शाश्वत वर्तमानता में देखते हैं।एक तरह से वे अपनी परंपरा का आधुनिक संदर्भो में पुनःसृजन करते हैं। कामायनी में उन्होंने मानव जाति के उद्भव से जुड़ी मिथ-कथा से मनु, श्रद्धा और इड़ा नामक केन्द्रीय पात्रों के इर्द-गिर्द आधुनिक भारतजन की चुनौतियों और चेतनाओं की रूपात्मक अभिव्यक्ति की है।
तुमुल कोलाहल कलह में पाठ का सारांश
यहाँ प्रस्तुत कविता कामायनी के श्रद्धा अंक से उद्धृत है। कविता मूलतः आशा और नैराश्य के द्वन्द्व के बीच आशा का विधान करती है। मनु, जो खंड जल प्रलय से आहत, निराशा और जीवन मात्र से उदासीन मनःस्थिति में निमग्न हैं, के हृदय में जीवन के प्रति अनुराग, सृजन और सौंदर्य का संदेश श्रद्धा के माध्यम से दिया गया है। मनु यहाँ संपूर्ण भारतीय मन की निराशा के प्रतिनिधि के रूप में मौजूद हैं। यह निराशा तत्कालीन स्वतंत्रता आंदोलन की विफलताओं से उपजी निराशा भी है। वहीं श्रद्धा विश्वासपूर्ण आत्मिक बुद्धि, विकासगामी ज्ञान, सृजनधर्मी संकल्प तथा कुल मिलाकर आत्मजागरण और प्रबोधन की प्रतीक है। कवि ने भारतीय मनवंतर की मिथकीय कथा को यहाँ रूपक के रूप में रचा है। यह रूपक श्रद्धा से विकसित होते हुए नारी मात्र की अस्मिता तक तथा नारी अस्मिता से विकसित होकर एक राष्ट्रीय रूपक तक पहुँचता है । यहाँ श्रद्धा द्वारा मनु के हृदय में प्रेम, सौंदर्य और काम का संचरण करने की स्थिति प्रकारांतर से निराशा और हताश भारतीय जन-मन में आत्मबोध और सृजनधर्मी मानसिकता को प्रतिबिंबित करती है। श्रद्धा एवं मनु एक रूपक की तरह आये हैं। श्रद्धा स्वयं की व्याख्या एक विनम्र स्वाभिमान के साथ करती है। वह जीवन के संघर्षों से पीड़ित पुरुष के लिए भावनात्मक आश्रय के रूप में सामने आती है। दूसरे शब्दों में, जीवन की जीवंतता से हीन पुरुष अंततः मृतप्राय ही कहा जा सकता है। ऐसे में स्त्री का होना उसके लिए मरुभूमि में आनंदपूरित बरसात की तरह होता है। स्त्री के सान्निध्य में वह अपनी तमाम चिंताओं, क्लेशों, संतापों, निराशाओं और हताशाओं को विसर्जित कर देता है। वह पुनः ऊर्जस्वित होकर जीवन के आध्यात्मिक उन्नयन की ओर प्रवृत्त हो जाता है। हमारे शास्त्रों में स्त्री-पुरुष के इस सहज प्रेम या आकर्षण को जीवन के पुरुषार्थों धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ काम के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है, जिसका अंततः उद्देश्य होता है कि-सृजन और गृहस्थ जीवन की गाड़ी इसी सृजन पर ही अवलंबित हो, जिसकी एक अनिवार्य कड़ी स्त्री है। अतः श्रद्धा का कथन स्त्री मात्र के कथन पर सिद्धांततः और व्यवहारतः बिल्कुल सही घटित होता है।
तुमुल कोलाहल कलह में Subjective Question
Q.1. ‘हृदय की बात’ का क्या आशय है ?
उत्तर – ‘हृदय की बात’ से यहाँ आशय मनुष्य की आंतरिक सुंदरतम अनुभूतियों और भावनाओं से है। यह बाह्य जीवन के कोलाहल और कलह के घनीभूत वातावरण के समानांतर एक सुंदर और आत्मिक संसार की प्रतिनिधि है, जो खंड प्रलय से आहत और घोर निराशा में घिरे मनु के अंतरतम में प्रेम, सौंदर्य और सृजन की अनुभूति जगाने का कार्य करती है।
Q. 2. कविता में उपा की किस भूमिका का उल्लेख है ?
उत्तर – कविता में उषा का उल्लेख विषाद और व्यथा के अंधकार के समानांतर आशा और हर्ष की वाहिका, ज्योति की किरण के रूप में हुआ है जो पुष्पों के विकास की प्रतीकात्मकता अर्थात् जीवन में आशा और हर्ष के आगमन के रूप में प्रकट हुई है।
Q.3. चातकी किसके लिए तरसती है?
उत्तर – चातकी ‘कन’ अर्थात् स्वाति नक्षत्र में वर्षा की पहली बूँद जिसे मोती कहा गया है, के लिए तरसती है।
Q. 4. बरसात को ‘सरस’ कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर – जब मनु के जीवन में चिंता और उद्वेग की ज्वाला धधकती है तथा पूरा सम्मुख जीवन एक अनंत मरुभूमि की तरह प्रतीत होता है, जैसे चातकी अपनी अभिप्सित वर्षा की पहली बूँद के लिए लालायित रहती है। ठीक उसी समय श्रद्धा का आना या होना उस ‘सरस’ अर्थात् आनंद, तृप्ति, सौंदर्य और सृजन रूपी वर्षा की तरह है जो जीवन को एक साथ सुंदर और संपूर्ण बना देती है।
Q. 5. काव्य सौंदर्य स्पष्ट करें–
पवन की प्राचीर में रुक. जला जीवन जा रहा झुक,
इस झुलसते विश्व-वन की, कुसुम ऋतु रात रे मन !
उत्तर – यहाँ श्रद्धा मनु की मानसिक व्यथा का जिक्र करते हुए कहती हैं कि पवन की प्राचीरों में रुककर अर्थात् जीवन में गति और प्रवाह के अभाव में यह जीवन समर्पित सा जलता चला जा रहा है। यह जो पूरी सृष्टि की किस गतिशीलता और सृजनात्मकता से रहित होकर मानो शोक, पश्चाताप और नैराश्य के ताप से झुलसती जा रही है, के बीच में वसंत ऋतु की तरह शीतल रात्रि हूँ। अर्थात् सृष्टि के ताप का हरण करने वाली जीवनदायिनी सृजनात्मक शक्ति हूँ। यहाँ श्रद्धा एवं मनु एक रूपक की तरह आये हैं। श्रद्धा स्वयं की व्याख्या एक विनम्र स्वाभिमान के साथ करती है। यहाँ उपदेश तो है लेकिन कांतासम्मित है। आचार्य मम्मट ने कहा है कि काव्य पत्नी या प्रेयसी की तरह सुकुमार भाषा व शैली में जीवन के लिए आवश्यक उपदेश देता है। उक्त पद मम्मट की इस उक्ति पर अपने रचाव तथा संदेश दोनों स्तरों पर चरितार्थ होता है।
Q.6 सजल जलजात का क्या अर्थ है ?
उत्तर – ‘सजल जलजात’ का अर्थ है जल से युक्त कमल। यहाँ कविता में निराशा और दुख से प्रतिच्छायित अश्रुओं के सरोवर अर्थात् शुष्कप्राय जीवन में सजल अर्थात् आशा सौंदर्य और सृजनयुक्त कमल के पुष्प के रूप में आया है।
Q.7. कविता का केन्द्रीय भाव क्या है ? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर – कविता मूलतः आशा और नैराश्य के द्वन्द्व के बीच आशा का विधान करती है। मनु, जो खंड प्रलय से आहत, निराश और जीवन मात्र से उदासीन मनःस्थिति में निमग्न हैं, के हृदय में जीवन के प्रति अनुराग, सृजन का और सौंदर्य का संदेश श्रद्धा के माध्यम से दिया गया है। मनु यहाँ संपूर्ण भारतीय मन की निराशा के प्रतिनिधि के रूप में मौजूद हैं। यह निराशा तत्कालीन स्वतंत्रता आंदोलन की विफलताओं से उपजी निराशा भी है। श्रद्धा विश्वासपूर्ण आत्मिक बुद्धि, विकासगामी ज्ञान, सृजनधर्मी संकल्प तथा कुल मिलाकर आत्मजागरण और प्रबोधन की प्रतीक है। कवि ने भारतीय मनवंतर की मिथकीय कथा को यहाँ रूपक के रूप में रचा है। यह रूपक श्रद्धा से विकसित होते हुए नारी मात्र की सत्ता-सार का व्याख्यान करता है। पुनः नारी, मात्र से विकसित होकर एक राष्ट्रीय रूपक तक पहुँच जाता है। यहाँ श्रद्धा द्वारा मनु के हृदय में प्रेम, सौंदर्य और काम का संचरण करने की स्थिति प्रकारांतर से निराश और हताश भारतीय जन-मन में आत्मबोध और सृजनधर्मी मानसिकता को प्रतिबिंबित करती है।
Q. 8. कविता में ‘विषाद’ और ‘व्यथा’ का उल्लेख है, यह किस कारण से है, अपनी कल्पना से उत्तर दीजिए।
उत्तर – कविता में ‘विषाद’ और ‘व्यथा’ का उल्लेख है जो मूलतः खंड प्रलय की दशा में उजड़ चुकी सृष्टि के प्रति शोक की व्यंजना करती है। काव्यनायक मनु इस विनाशलीला को देखकर विचलित और उद्विग्न हो जाते हैं। वे जीवन के प्रति एक निवृत्तिमूलक दृष्टि से ग्रसित होने लगते हैं। उनके मन की घोर निराशा ही पूरी कविता में व्याप्त दिखाई पड़ती है।
Q. 9. यह श्रद्धा का गीत है जो नारीमात्र का गीत कहा जा सकता है। सामान्य जीवन में नारियों की जो भूमिका है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कविता में कही गई बातें उस पर घटित होती हैं? विचार कीजिए और गृहस्थ जीवन में नारी के अवदान पर एक छोटा निबंध लिखिए।
उत्तर – तत्वदर्शन के आधार पर देखें तो जयशंकर प्रसाद का यह काव्य काश्मीरी शैव दर्शन पर आधारित है। शैव दर्शन की मान्यता के आधार पर पुरुष शव हैं, जब तक कि उसमें शक्ति अर्थात् स्त्री का सन्निवेश नहीं हो जाता। शक्ति के सन्निवेश से यह शव शिव बन पाता है। पुरुष सामान्यतः पारिवारिक जीवन का अगुआ होता है। वह आर्थिक उपार्जन द्वारा अपने पौरुष द्वारा परिवार के लिए संरक्षण और संबल प्रदान करता है। स्त्री पुरुष के संदर्भ में इसीलिए पुरुष को भर्ता भी कहा गया है। लेकिन इस संरक्षण और संबल के लिए पुरुष को बाह्य जीवन में संघर्पो, विरोधों और चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है। वह संघर्ष करते करते कई बार जीवन के सुंदरतम पक्षों के प्रति उदासीन-सा होने लगता है। जीवन में एक शुष्कता से वह घिर जाता है। वह नैराश्य और निवृत्ति की तरफ उन्मुख होता है। दूसरे शब्दों में, जीवन की जीवंतता (vitality) से हीन पुरुष अंततः मृतप्राय ही कहा जा सकता है। ऐसे में स्त्री का होना उसके लिए मरुभूमि में आनंदपूरित बरसात की तरह होता है। स्त्री के सान्निध्य में वह अपनी तमाम चिंताओं, क्लेशों, संतापों, निराशाओं और हताशाओं को विसर्जित कर देता है। वह पुनः उर्जस्थित होकर जीवन के आध्यात्मिक उन्नयन की ओर प्रवृत्त हो जाता है। हमारे शास्त्रों में स्त्री-पुरुष के इस सहज प्रेम या आकर्षण को जीवन के पुरुषार्थों धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ काम के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है, जिसका अंततः उद्देश्य होता है— सृजन और गृहस्थ जीवन की गाड़ी इसी सृजन पर ही अवलंबित होती है, जिसकी एक अनिवार्य कड़ी स्त्री है। अतः श्रद्धा का कथन स्त्री मात्र के कथन पर सिद्धांततः और व्यवहारतः बिल्कुल सही घटित होता है।
Q. 10. इस कविता में स्त्री को प्रेम और सौंदर्य का स्रोत बताया गया है। आप अपने पारिवारिक जीवन के अनुभवों के आधार पर इस कथन की परीक्षा कीजिए।
उत्तर – एक पारिवारिक जीवन में स्त्री कई रूपों में सामने आती है। वह पत्नी भी है, मो भी है और वहन भी। संबंधों की सापेक्षता के हिसाब से स्त्री हमारे पारिवारिक जीवन में विभिन रूपों में सक्रिय होती है। पत्नी के रूप में वह पुरुष के जीवन में प्रेम और सौंदर्य का प्रतीक है। यह प्रेम और सौंदर्य सिर्फ देह की सीमा में नहीं बंधा है। बल्कि स्त्री के सान्निध्य में पुरुष अपनी तमाम चिंताओं, क्लेशों, संतापों, निराशाओं और हताशाओं को विसर्जित कर देता है। वह पुनः उर्जस्वित होकर जीवन के आध्यात्मिक उन्नयन की ओर प्रवृत्त हो जाता है। माँ की उपस्थिति शिशु के लिए एक साथ संरक्षण, करुणा और प्रेम का प्रतीक बन जाती है। किसी भी शिशु के लिए उसकी माता से सुंदर दुनिया की कोई वस्तु नहीं होती। वह उसके लिए दुनिया की समस्त खुशियाँ मुहैया कराने वाली शक्तिस्वरूपा देवी भी हो जाती है। इस तरह स्त्री पुरुष के जीवन में अपने विभिन्न रूपों में देवी, माँ, सहचरी आदि हर रूप में एक सार्थक भूमिका निभाती है। प्रसाद का ही कथन है— नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नम पदतल में पीयूष स्रोत सी वहा करो जीवन के सुंदर समतल में ।
Q. 11. ‘तुमुल कोलाहल कलह में कविता का भावार्थ लिखें। या, ‘तुमुल कोलाहल कलह में कविता का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – यह कविता जयशंकर प्रसाद रचित कामायनी के श्रद्धा अंक से उद्धृत है। कविता मूलतः आशा और नैराश्य के द्वन्द्व के बीच आशा का विधान करती है। मनु, जो खंड जल प्रलय से आहत, निराश और जीवन मात्र से उदासीन मनःस्थिति में निमग्न हैं, के हृदय में जीवन के प्रति अनुराग, सृजन और सौंदर्य का संदेश श्रद्धा के माध्यम से दिया गया है। मनु यहाँ संपूर्ण भारतीय मन की निराशा के प्रतिनिधि के रूप में मौजूद हैं। यह निराशा तत्कालीन स्वतंत्रता आंदोलन की विफलताओं से उपजी निराशा भी है। वहीं श्रद्धा विश्वासपूर्ण आत्मिक बुद्धि, विकासगामी ज्ञान, सृजनधर्मी संकल्प तथा कुल मिलाकर आत्मजागरण और प्रबोधन की प्रतीक है। यहाँ श्रद्धा द्वारा मनु के हृदय में प्रेम, सौंदर्य और काम का संचरण करने की स्थिति प्रकारांतर से निराश और हताश भारतीय जन-मन में आत्मबोध और सृजनधर्मी मानसिकता को प्रतिबिंबित करती है। श्रद्धा जीवन के संघर्षों से पीड़ित पुरुष के लिए भावनात्मक आश्रय के रूप में सामने आती है। सभ्यता के निर्माण में स्त्री का सान्निध्य पुरुष को तमाम चिंताओं, क्लेशों, संतापों, निराशाओं और हताशाओं से मुक्त कर देता है। वह पुनः ऊर्जस्थित होकर जीवन के आध्यात्मिक उन्नयन की ओर प्रवृत्त हो जाता है। हमारे शास्त्रों में स्त्री-पुरुष के इस सहज प्रेम या आकर्षण को जीवन के पुरुषार्थों धर्म, अर्थ और मोदा के साथ काम के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है, जिसका अंततः उद्देश्य होता है— सृजन। गृहस्थ जीवन की गाड़ी इसी सृजन पर ही अवलंबित होती है। अतः श्रद्धा का कथन स्त्री मात्र के कथन पर सिद्धांततः और व्यवहारतः बिल्कुल सही घटित होता है।
तुमुल कोलाहल कलह में Objective Question
1. जयशंकर प्रसाद का जन्म कब हुआ था?
(क) 1187
(ख) 1188
(ग) 1889
(घ) 1190
उतर -1889
2. जयशंकर प्रसाद का निधन कब हुआ था?
(क) 15 नवंबर, 1936
(ख) 15 नवबर, 1937
(ग) 15 नवंबर, 1938
(घ) 15 नवंबर, 1939
उतर -15 नवबर, 1937
3. जयशंकर प्रसाद का जन्म कहाँ हुआ था?
(क) वाराणसी
(ख) इलाहावाद
(ग) गोरखपुर
(घ) बलिया
उतर -वाराणसी
4. ‘कामायनी’ कैसा काव्य है?
(क) प्रबंध काव्य
(ख) खंड काव्य
(ग) महाकाव्य
(घ) गीति काव्य
उतर -प्रबंध काव्य
5. जयशंकर प्रसाद किस युग के कवि थे?
(क) भारतेंदु युग
(ख) द्विवेदी युग
(ग) छायावाद
(घ) भक्ति काल
उतर -छायावाद
6. जयशंकर प्रसाद के पिता किस नाम से प्रसिद्ध थे?
(क) शिवरत्न साहु –
(ख) सुंघनी साहु
(ग) नरोत्तम साहु
(घ) शिवबचन साहु
उतर -सुंघनी साहु
7. ‘आँसू’ जयशंकर प्रसाद की कैसी रचना है?
(क) काव्य संकलन
(ख) अतुकान्त
(ग) प्रबंध संकलन
(घ) नाटक
उतर -काव्य संकलन
8. ‘ध्रुवस्वामिनी’ जयशंकर प्रसाद की कैसी रचना है?
(क) काव्य संकलन
(ख) अतुकान्त
(ग) प्रबंध काव्य
(घ) नाटक
उतर -नाटक
9. ‘कंकाल’ कैसी रचना है?
(क) काव्य
(ख) निबंध
(ग) उपन्यास
(घ) नाटक
उत्तर – उपन्यास
10. जयशंकर प्रसाद की काव्य भाषा में कैसे शब्दों की प्रधानता थी?
(क) तत्सम
(ख) तद्भव
(ग) देशज
(घ) विदेशज
उतर -तत्सम
11. जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना कौन है ?
(क) ककाल
(ख) ध्रुवस्वामिनी –
(ग) कामायनी
(घ) आँसू
उतर -कामायनी