Download Pdf|शिक्षा 12th Hindi Chapter 13|लेखक के बारे में|पाठ का सारांश|VVI Subjectives Questions|VVI Objectives Questions

शिक्षा लेखक के बारे में

जे. कृष्णमूर्ति भारतीय चिंतन परंपरा के सुदृढ़ स्तंभ हैं। उनके चिंतन का आयाम विस्तृत रहा है। इतिहास, परंपरा, धर्म, ईश्वर, राष्ट्र, समाज, शिक्षा, संस्कृति, जीवन प्रणाली आदि पर‌ उन्होंने बीसवीं शती में स्वतंत्र और लोकतांत्रिक दृष्टि से विचार किया। प्रस्तुत निबंध में वे शिक्षा की अवधारणा, प्रणाली तथा सीखने की प्रक्रिया पर एक तर्कपूर्ण और व्यावहारिक दृष्टि रखते हैं। वे ज्ञानार्जन के रटे-रटाये ढर्रे की अपेक्षा विद्रोहात्मक रवैये का समर्थन करते हैं। उनका मानना है कि जीवन में पूर्व-प्रदत्त सिद्धान्तों और परंपराओं के खिलाफ एक सतत बौद्धिक, व्यावहारिक‌ और सर्जनात्मक चेतना ही लेखक के अनुसार विद्रोह है।

12th Class का All Subjects का तैयारी करने के लिए यहाँ Click करें। 👈👈👈👈👈

 

शिक्षा पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ में लेखक ने बताना चाहा है कि जो व्यक्ति पुरानी मान्यताओं को लकीर के फकीर की तरह मानकर चलता है वह जीवन और संसार को कुछ नवीन नहीं दे सकता। अपने अंदर में एक सतत मनोवैज्ञानिक विद्रोह की अवस्था धारण करने वाला व्यक्ति ही जीवन के वास्तविक सत्य की खोज कर सकता है। वह समाज को कुछ नया, कुछ मौलिक दे सकता है।‌ उनका मानना है कि भय हमारे चिंतन की प्रक्रिया को आक्रांत कर देता है। हम अपने जीवन में परंपराओं और रूढ़ियों, पूर्व-प्रदत्त सिद्धांतों को ही पर्याप्त और अंतिम सत्य मानकर अपनी मौलिकता और सर्जनात्मकता का नाश कर देते हैं। सर्जनात्मकता और मौलिकता की अनुपस्थिति वस्तुतः मेधा की अनुपस्थिति है। यह निबंध इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि वे शिक्षा के उद्देश्य पर एक गंभीर बहस की प्रस्तावना करते हैं। शिक्षा का अर्थ है सीखने की एक अनवरत प्रक्रिया। सीखने की यह प्रक्रिया सिर्फ किताबों या विभिन्न ज्ञानानुशासनों तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन की संपूर्ण प्रक्रिया से संबंधित होती है। मनुष्य को पूरी तरह से भारहीन,स्वतंत्र और आत्मप्रज्ञा निर्भर बनाना शिक्षा का कार्य है क्योंकि ऐसा होने पर ही मनुष्य मात्र में सच्चे सहयोग, सद्भाव, प्रेम और करुणा, दायित्व बोध का सर्जनात्मक विकास संभव होगा। सच्ची शिक्षा हमारा विस्तार करती है, हमें गहरा बनाती है, व्यापकता देती है। वह हमें सीमाओं और संकीर्णताओं से उबारती है। शिक्षा का ध्येय पेशेवर दक्षता, आजीविका और महज कुछ कर्मकौशल नहीं है। उसका कार्य है हमारा संपूर्ण उन्नयन । अतः आज की व्यावसायिक शिक्षा प्रणाली के जोर-शोर में इस निबंध की सार्थकता स्वतः बढ़ जाती है।

 

शिक्षा Subjective Question

Q.1. ‘जीवन क्या है। इसका परिचय लेखक ने किस रूप में दिया है ?

उत्तर – लेखक जीवन को विलक्षणताओं और विविधताओं का संगुफन मानते हैं। यह परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर लेने, नौकरी पा जाने, विवाह कर लेने और बच्चे पैदा कर लेने की यंत्रवत स्थिति से परे एक गतिशील परिदृश्य रखते हैं। लेखक जीवन का परिचय देते हुए कहता है कि ‘ये पक्षी, ये फूल, ये वैभवशाली वृक्ष, यह आसमान, ये सितारे, ये सरिताएँ, ये मत्स्य, यह सब हमारा जीवन है। जीवन दीन है, जीवन अमीर भी! जीवन समुदायों, जातियों और देशों का पारस्परिक सतत संघर्ष है, जीवन ध्यान है, जीवन धर्म भी! जीवन गूढ़ है, जीवन मन की प्रच्छन्न वस्तुएँ हैं ईष्र्ष्याएँ, महत्वाकांक्षाएँ, भय, सफलताएँ, चिंताएँ। केवल इतना ही नहीं,अपितु इससे कहीं ज्यादा है जीवन !

 

Q.2. बचपन से ही आपका ऐसे वातावरण में रहना अत्यंत आवश्यक है जो स्वतंत्रतापूर्ण हो।’ क्यों ?

उत्तर – हममें से अधिकांश व्यक्ति एक अनावश्यक भय से सदैव ग्रस्त रहते हैं। परंपराओं और रूढ़ियों से भय, जीवन की असफलताओं से भय संबंधों से भय, मृत्यु से भय जैसी स्थितियों में बंधकर हम अपनी नैसर्गिकता को खो बैठते हैं। यदि हमें एक स्वतंत्र वातावरण में विकास का अवसर मिले तो हम उपरोक्त तमाम प्रकार के भय, बंधन और चिंताओं से मुक्त होते हैं। हम स्वतंत्रचेता मस्तिष्क के साथ, जिसे लेखक ने ‘मेघा’ कहा है, जीवन की संपूर्ण प्रक्रिया को, अपने लिए सत्य को, वास्तविकता को किसी पूर्व प्रदत सिद्धांतों से परे जाकर खोज सकते या पुननिर्मित कर सकते हैं।

 

Q.3. जहाँ भय है वहाँ मैया नहीं हो सकती। क्यों?

उत्तर – भय हमारे चिंतन की प्रक्रिया को आक्रांत कर देता है। हम अपने जीवन में परंपराओं और रूढ़ियों, पूर्व प्रदत्त सिद्धांतों को ही पर्याप्त और अंतिम सत्य मानकर अपनी मौलिकता और सर्जनात्मकता का नाश कर देते हैं। सर्जनात्मकता और मौलिकता की अनुपस्थिति ही वस्तुतः मेघा की अनुपस्थिति है। अतः यह कहना नितांत उचित है कि जहाँ भय है वहाँ मेघा नहीं हो सकती।

 

 

Q.4. जीवन में विद्रोह का क्या स्थान है ?

उत्तर –  जीवन में पूर्व प्रदत्त सिद्धान्तों और परंपराओं के खिलाफ एक सतत बौद्धिक, व्यावहारिक और सर्जनात्मक चेतना ही लेखक के अनुसार विद्रोह है। जो व्यक्ति पुरानी मान्यताओं को लकीर के फकीर की तरह मानकर चलता है वह जीवन और संसार को कुछ नवीन नहीं दे सकता। अपने अंदर में एक सतत मनोवैज्ञानिक विद्रोह की अवस्था धारण करने वाला व्यक्ति ही जीवन के वास्तविक सत्य की खोज कर सकता है। वह समाज को कुछ नया कुछ मौलिक दे सकता है।

 

Q.5. व्याख्या करें–

यहाँ प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी के विरोध में खड़ा है और किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने के लिए प्रतिष्ठा, सम्मान, शक्ति व आराम के लिए निरंतर संघर्ष कर रहा है।

उत्तर –  लेखक का मानना है कि संपूर्ण संसार में महत्वाकांक्षा-जनित संघर्ष का अराजक दौर व्याप्त है। यह संपूर्ण संसार ही परस्पर विरोधी विश्वासों, विभिन्न वर्गों, जातियों, पृथक-पृथक विरोधी राष्ट्रीयताओं और हर प्रकार की अंघलिप्साओं के वशीभूत है। अतः यहाँ संघर्ष स्वाभाविक है। सामान्य स्त्री-पुरुष प्रतिष्ठा के मोह में एक-दूसरे के खिलाफ संघर्षरत हैं, संन्यासी और धर्मगुरु इहलौकिक और पारलौकिक प्रतिष्ठा के मोहपाश में बंधे संघर्षरत हैं, साम्यवादी, पूंजीवादी और समाजवादी अपने-अपने सिद्धान्तों को लेकर संघर्षरत हैं। मोटे तौर पर व्यक्तिओं, सामूहिकताओं और विचारों का यह संघर्ष अपने लिए एक तथाकथित सुरक्षित और प्रतिष्ठापूर्ण स्थान सुनिश्चित करने के लिए अनवरत जारी है। अतः यह स्वार्थपरता ही उन्हें एक-दूसरे के विरोध में खड़ा करने का कारण मुहैया करा रही है।

 

Q.6. नूतन विश्व का निर्माण कैसे हो सकता है ?

उत्तर: नूतन विश्व का निर्माण तभी संभव है जब प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र चेतना के साथ मानसिक और आध्यात्मिक क्रांति की स्थिति महसूस करे। अपना मन और अपना समस्त जीवन एक ऐसे शैक्षिक परिदृश्य के निर्माण में समर्पित कर दे जहाँ न तो भय हो और न ही किसी प्रकार का बंधन । अपनी महत्वाकांक्षा, परिग्रही चरित्र, अपनी सुरक्षा भावना का परित्याग करके ही ऐसा परिदृश्य संभव हो सकता है।

 

Q. 7. क्रांति करना, सीखना और प्रेम करना तीनों पृथक-पृथक क्रियाएँ नहीं हैं, कैसे?

उत्तर – लेखक के अनुसार क्रांति करने का आशय है पुरानी पद्धतियों के विरोध का साह और नवीन पद्धति के निर्माण की रचनात्मक चेतना और सतत प्रयास। इस रचनात्मक क्रांति के लिए नवीन जीवन मूल्यों और आदर्शों को सीखना आवश्यक है। ये नवीन जीवन मूल्य एक सूखी पत्ती से, एक उड़ती हुई चिड़िया से, एक खुशबू से, एक आँसू से, एक धनी से, क्रंदन कर रहे गरीब से, एक महिला की मुस्कुराहट से, किसी के अहंकार से-कहीं से भी सीखे जा सकते हैं। अर्थात् जीवन के विविध सजीव-निर्जीव परिवेश से हम सीख सकते हैं। लेकिन इस सीखने के लिए जीवन के उपरोक्त विविध पहलुओं से हमें प्रेम करना होगा। इस प्रकार शिक्षा की समग्र प्रक्रिया में क्रांति करना, सीखना और प्रेम करना परस्पर समीकृत हो जाते हैं।

 

Q. 8. गाँधीजी के शिक्षा संबंधी आदर्श क्या थे?

उत्तर – गाँधीजी शिक्षा को चरित्र निर्माण की एक महत्वपूर्ण व्यवस्था के रूप में देखते थे। उनका मानना था कि परंपरागत शिक्षा व्यवस्था की जगह बच्चों को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे वे संस्कारवान और सच्चरित्र बनें। वर्तमान शिक्षा पद्धति तो उन्हें हेय और बौना बना देती है। उनका व्यक्तित्व दब जाता है और वे सिर्फ किताबी ज्ञान के प्रतीक मात्र रह जाते हैं। गाँधीजी जीविका के नए साधन के लिए बच्चों को औद्योगिक शिक्षा दिये जाने पर सहमत तो हैं लेकिन यह भी ध्यान दिलाते हैं कि नई औद्योगिक शिक्षा लेकर बच्चे अपने वंशगत व्यवसायों को छोड़ दें। बल्कि वे नये औद्योगिक ज्ञान का प्रयोग अपने वंशगत व्यवसाय के उन्नयन में ही करें।

 

Q.9. शिक्षा का क्या अर्थ है एवं इसके क्या कार्य हैं? स्पष्ट करें।

उत्तर – शिक्षा का अर्थ है–सीखने की एक अनवरत प्रक्रिया । सीखने की यह प्रक्रिया सिर्फ किताबों या विभिन्न ज्ञानानुशासनों तक सीमित नहीं है, बल्कि जीवन की संपूर्ण प्रक्रिया से संबंधित होती है। मनुष्य को पूरी तरह से भारहीन, स्वतंत्र और आत्मप्रज्ञानिर्भर बनाना ही शिक्षा का कार्य है, क्योंकि ऐसा होने पर ही मनुष्य मात्र में सच्चे सहयोग, सद्भाव, प्रेम और करुणा, दायित्वबोध का सर्जनात्मक विकास संभव होगा। सच्ची शिक्षा हमारा विस्तार करती है, हमें गहरा बनाती है, व्यापकता देती है। वह हमें सीमाओं और संकीर्णताओं उबारती है। शिक्षा का ध्येय पेशेवर दक्षता, आजीविका और महज कुछ कर्मकौशल नहीं है। उसका कार्य है हमारा संपूर्ण उन्नयन।

 

1. जे. कृष्णमूर्ति का जन्म कब हुआ?

(क) 12 मई, 1895

(ख) 12 मई, 1896 

(ग) 12 मई, 1897 

(घ) 12 मई, 1898

उतर – 12 मई, 1895

 

2. जे. कृष्णमूर्ति का निधन कब हुआ?

(क) 17 फरवरी, 1985

(ख) 17 फरवरी, 1986

(ग) 17 फरवरी, 1987

(घ) 17 फरवरी, 1988

उतर – 17 फरवरी, 1986

 

3. जे. कृष्णमूर्ति का जन्म कहाँ हुआ?

(क) चित्तूर, आंध्र प्रदेश गट

(ख) विजयवाडा, आंध्र प्रदेश का

(ग) हैदराबाद, आंध्र प्रदेश

(घ) गुंटूर, आंध्र प्रदेश

उतर – चित्तूर, आंध्र प्रदेश गट

 

4. जे. कृष्णमूर्ति का पूरा नाम क्या था?

(क) जिद्दी कृष्णमूर्ति

(ख) जिद्दा कृष्णमूर्ति

(ग) जिद्दे कृष्णमूर्ति 

(घ) जिद् कृष्णमूर्ति

उतर – जिद् कृष्णमूर्ति

 

5. जे. कृष्णमूर्ति किस संस्था से जुड़े थे?

(क) जियोग्राफिकल सोसायटी

(ख) जियोलॉजिकल सोसायटी

(ग) हिस्टोरिकल सोसायटी

(घ)-थियोसोफिकल सोसायटी

उतर – थियोसोफिकल सोसायटी

 

6. 1938 में कृष्णमूर्ति किसके संपर्क में आए?

(क) एल्डुअस हक्सले

(ख) बट्रेंड रसेल

(ग) अलबर्ट आइन्सटाइन  

(घ) जॉर्ज बर्नार्ड शॉ

उतर – एल्डुअस हक्सले

 

 

 

 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page

error: Content is protected !!